न कोई अपना ग़म है और न अब कोई ख़ुशी अपनी
न कोई अपना ग़म है और न अब कोई ख़ुशी अपनी
तुम्हीं कह दो कि हम कैसे गुज़ारें ज़िंदगी अपनी
फ़रेब-ए-हम-सफ़र है और राह-ए-ग़म का सन्नाटा
मुनासिब है कि ख़ुद हो ऐ जुनूँ अब रहबरी अपनी
उजाला महफ़िलों में कर के भी आँसू ही हाथ आए
न रास आई कभी ख़ुद शम्अ' को भी रौशनी अपनी
गुज़ारिश है कि ऐ मा'बूद मुझ को ज़ब्त-ए-ग़म दे दे
न कर दे फ़ाश राज़-ए-आरज़ू को बेकसी अपनी
तड़प जाएगा हर दिल 'शम्स' का जब नाम आएगा
नुमायाँ यूँ भी होगी दास्तान-ए-ग़म कभी अपनी
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