मुझे हर शाम इक सुनसान जंगल खींच लेता है
और इस के बाद फिर ख़ूनी बलाएँ रक़्स करती हैं
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आँखों में हिज्र चेहरे पे ग़म की शिकन तो है
पलकों पे सितारा सा मचलने के लिए था
सितारा टूट के बिखरा और इक जहान खुला
दूर तक फैली हुई है तीरगी बातें करो
दीवार की सूरत था कभी दर की तरह था
मिरे अतराफ़ ये कैसी सदाएँ रक़्स करती हैं
इस से पहले कि चराग़ों को वो बुझता देखे
ज़मीं को खींच के मैं सू-ए-आसमाँ ले जाऊँ
इक शख़्स तेरी बज़्म से ख़ामोश उठ गया
रूह को अपनी तह-ए-दाम नहीं कर सकता
मैं ने हाथों में कुछ नहीं रक्खा