मंज़र यूँ था
शाम रुख़्सत हो चुकी थी
एहसास के तलवों को सहला कर
कितना सुकून मिला था
तब नंगे पाँव
घास पर चलने को बड़ा दिल चाहा
कि अचानक
रात आई
सियाह कफ़न में अपना मुँह छुपाए
और
बे-तरतीब शब-ओ-रोज़ के दरमियान
टँगी हुई अलगनी पर
मजबूर ज़िंदगी
अपने कर्तब दिखलाने लगी
और रात
जिस तरह
आसमान पर आवारा बादलों के टुकड़े
चाँदनी से अठखेलियाँ करते हुए
शर्मिंदा हो जाते हैं
रात उसी तरह
मेरे जिस्म के नशेब-ओ-फ़राज़ से गुज़रती हुई
शर्मिंदा हो गई
शाम रुख़्सत हो चुकी थी
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