हुनर-मंद हाथों की मिट्टी से
मैं ने बनाया
जो बहते हुए पानियों पे मकाँ
तो सच ये
ज़माने को कड़वा लगा
मैं कि मज़दूर था
एक मजबूर था
कोई नायाब गौहर न था
मैं कि आज़र न था
ये तो अच्छा हुआ
ऐ ख़ुदा
तू ने रक्खीं सलामत मिरी उँगलियाँ
Rahat Indori
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Gulzar
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
Parveen Shakir
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Wasi Shah
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शहर में अम्न-ओ-अमाँ हो ये ज़रूरी है मगर
फ़ज़ा-ए-नम में सदाओं का शोर हो जाए
घर में आसेब ज़लज़ले का है
नया लहजा ग़ज़ल का मिस्रा-ए-सानी में रक्खा है
किसी ट्रेन के नीचे वो कट गया होता
नया आदम
मंज़र यूँ था
मूए ने मुँह की खाई फिर भी ये ज़ोर ज़ोरी
इज़हार-ए-तशक्कुर
सब से पहले तो अर्ज़ मतला है
सराबों का सफ़र
तिलिस्म-ए-सफ़र