चुप हूँ तुम्हारा दर्द-ए-मोहब्बत लिए हुए
सब पूछते हैं तुम ने ज़माने से क्या लिया
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रखना है तो फूलों को तू रख ले निगाहों में
बे-ख़बर फूल को भी खींच के पत्थर पे न मार
अनमोल सही नायाब सही बे-दाम-ओ-दिरम बिक जाते हैं
सहर को दे के नई निकहत-ए-हयात गई
खंडर
कौन है दर्द-आश्ना संग-दिली का दौर है
शम्अ' पर शम्अ' जलाती हुई साथ आती है
जो मिल गई हैं निगाहें कभी निगाहों से
याद की सुब्ह ढल गई शौक़ की शाम हो गई
बुझा है दिल तो न समझो कि बुझ गया ग़म भी
दर्द-शनास दिल नहीं जल्वा-तलब नज़र नहीं
गुलों पे साया-ए-ग़म-हा-ए-रोज़गार मिले