बे-ख़बर फूल को भी खींच के पत्थर पे न मार
कि दिल-ए-संग में ख़्वाबीदा सनम होता है
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बुझा है दिल तो न समझो कि बुझ गया ग़म भी
ज़ुल्मत-गह-ए-दौराँ में सुब्ह-ए-चमन-ए-दिल हूँ
मुझे दैर से तअल्लुक़ न हरम से आश्नाई
रौशनी तेज़ करो
सहर को दे के नई निकहत-ए-हयात गई
दर्द-शनास दिल नहीं जल्वा-तलब नज़र नहीं
लीजिए बुला लिया आप को ख़याल में
ख़ुद कोई चाक-गरेबाँ है रग-ए-जाँ के क़रीब
निगार-ए-मह-वश ओ महबूब-ए-लाला-रू की तरह
अगरचे इश्क़ में इक बे-ख़ुदी सी रहती है
फ़रेब-ए-नज़र
गली गली है अंधेरा तो मेरे साथ चलो