माना कि सई-ए-इश्क़ का अंजाम-कार क्या
माना कि सई-ए-इश्क़ का अंजाम-कार क्या
बे-इख़्तियार दिल पे मगर इख़्तियार क्या
हर ज़र्रा आशियाना-ए-दिल है कहीं ठहर
सहरा-ए-ज़िंदगी में तलाश-ए-दियार क्या
शायद कि शहर में कोई इंसान आ गया
देखो हुजूम सा है सर-ए-रहगुज़ार क्या
सदियों का ज़हर पी के जो सोए वो क्या उठे
डसती है ज़िंदगी की ख़लिश बार-बार क्या
हर ज़र्रा लाला-ज़ार है ताज़ा लहू की तरह
बरसा है इस दयार में अब्र-ए-बहार क्या
क्यूँ मेरी ख़ाक-ए-दिल की तरफ़ मुल्तफ़ित हैं लोग
कुछ अब भी रह गया है दिलों में ग़ुबार क्या
फ़र्दा है इंतिज़ार में सदियाँ लिए हुए
माज़ी के माह-ओ-साल तुम्हारा शुमार क्या
मामूर है नशात-ए-ग़म-ए-दिल से ज़िंदगी
तुझ को 'शमीम' फ़िक्र-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्या
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