ज़रा भी जिस की वफ़ा का यक़ीन आया है
ज़रा भी जिस की वफ़ा का यक़ीन आया है
क़सम ख़ुदा की उसी से फ़रेब खाया है
हर एक काफ़िर-ओ-मोमिन के काम आया है
वो हर मक़ाम जहाँ मैं ने सर झुकाया है
बहुत ग़ुरूर था होश-ओ-हवास पर लेकिन
नज़र जब उन से मिली है तो होश आया है
कभी हुजूम-ए-अलम में भी मुस्कुराया हूँ
कभी ख़ुशी के भी आलम में जी भर आया है
अनीस-ए-दर्द-ए-जुदाई तिरा करम भी नहीं
तिरा सितम भी तो रह-रह के याद आया है
उदास देख के मुझ को उदास बैठे हैं
तमाम उम्र का ग़म आज रास आया है
'शमीम' मौज ओ तलातुम से क्या गिला कीजे
सफ़ीना ऐन किनारे पे डगमगाया है
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