मैं ने चाहा था कि लफ़्ज़ों में छुपा लूँ ख़ुद को
ख़ामुशी लफ़्ज़ की दीवार गिरा देती है
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नीले पीले सियाह सुर्ख़ सफ़ेद सब थे शामिल इसी तमाशे में
कभी सहरा में रहते हैं कभी पानी में रहते हैं
सफ़र नसीब अगर हो तो ये बदन क्यूँ है
शोला शोला थी हवा शीशा-ए-शब से पूछो
किताब पढ़ते रहे और उदास होते रहे
हिज्र का क़िस्सा बहुत लम्बा नहीं बस रात भर है
रोज़ ओ शब की गुत्थियाँ आँखों को सुलझाने न दे
बस एक वहम सताता है बार बार मुझे
हर नक़्श-ए-नवा लौट के जाने के लिए था
बंद कर ले खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर न देख
शाम आई सेहन-ए-जाँ में ख़ौफ़ का बिस्तर लगा