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ज़ेर-ए-ज़मीं दबी हुई ख़ाक को आसाँ कहो - शमीम हनफ़ी कविता - Darsaal

ज़ेर-ए-ज़मीं दबी हुई ख़ाक को आसाँ कहो

ज़ेर-ए-ज़मीं दबी हुई ख़ाक को आसाँ कहो

हर्फ़-ए-ख़राब-ओ-ख़स्ता को ज़िद है कि दास्ताँ कहो

आब-ए-सियाह फेर दो बाब-ए-वफ़ा के नक़्श पर

शहर-ए-अना में जब कभी क़िस्सा-ए-दीगराँ कहो

कौन शरीक-ए-दर्द था आतिश-ए-सर्द के सिवा

राख हक़ीर थी मगर राख को मेहरबाँ कहो

दूर ख़ला के दश्त में मिस्ल-ए-शरार सब्त हैं

किस ने उन्हें ख़फ़ा किया क्यूँ हुए बद-गुमाँ कहो

संग-ए-सज़ा का ख़ौफ़ भी बिस्तर-ए-जाँ से उठ गया

सल्तनत-ए-जलाल को टूटी हुई कमाँ कहो

आइना-ए-सराब है गर्द पस-ए-हबाब है

ठहरी हुई है ज़िंदगी फिर भी इसे रवाँ कहो

शाम हुई तो जल उठे रात ढली तो बुझ गए

हम भी यूँही फ़ना हुए हम को भी राएगाँ कहो

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In Hindi By Famous Poet Shamim Hanafi. is written by Shamim Hanafi. Complete Poem in Hindi by Shamim Hanafi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.