समझ सके न जिसे कोई भी सवाल ऐसा
समझ सके न जिसे कोई भी सवाल ऐसा
बुना है साँस के धागों ने एक जाल ऐसा
कभी दिमाग़ था मुझ को भी ख़ुद-परस्ती का
पलट के ज़ेहन में आया न फिर ख़याल ऐसा
मैं आसमाँ तो न था जिस में चाँद छुप जाते
हुआ न होगा किसी का कभी ज़वाल ऐसा
तमाम उम्र नए लफ़्ज़ की तलाश रही
किताब-ए-दर्द का मज़मूँ था पाएमाल ऐसा
किनार-ए-आब न पहुँचेगी जान की कश्ती
बहुत दिनों से है पानी में इश्तिआल ऐसा
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