Ghazals of Shamim Hanafi (page 1)
नाम | शमीम हनफ़ी |
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अंग्रेज़ी नाम | Shamim Hanafi |
जन्म की तारीख | 1938 |
मौत की तिथि | - |
जन्म स्थान | Delhi |
ज़ेर-ए-ज़मीं दबी हुई ख़ाक को आसाँ कहो
ये रिश्ता-ए-जाँ मेरी तबाही का सबब है
वो एक शोर सा ज़िंदाँ में रात भर क्या था
तुम्हारे चाक पर ऐ कूज़ा-गर लगता है डर हम को
तीरगी चाँद को इनआम-ए-वफ़ा देती है
तिलिस्म है कि तमाशा है काएनात उस की
सूरज धीरे धीरे पिघला फिर तारों में ढलने लगा
शोला शोला थी हवा शीशा-ए-शब से पूछो
शाम के साहिल पे सूरज का सफ़ीना आ लगा
शाम आई सेहन-ए-जाँ में ख़ौफ़ का बिस्तर लगा
समझ सके न जिसे कोई भी सवाल ऐसा
सफ़र नसीब अगर हो तो ये बदन क्यूँ है
रोज़ ओ शब की गुत्थियाँ आँखों को सुलझाने न दे
फिर लौट के इस बज़्म में आने के नहीं हैं
परछाइयों की बात न कर रंग-ए-हाल देख
नीले पीले सियाह सुर्ख़ सफ़ेद सब थे शामिल इसी तमाशे में
लक़ड़हारे तुम्हारे खेल अब अच्छे नहीं लगते
क्यूँ परेशान हुआ जाता है दिल क्या जाने
किताब पढ़ते रहे और उदास होते रहे
कई रातों से बस इक शोर सा कुछ सर में रहता है
कभी सहरा में रहते हैं कभी पानी में रहते हैं
इस तरह इश्क़ में बर्बाद नहीं रह सकते
हिज्र का क़िस्सा बहुत लम्बा नहीं बस रात भर है
हर नक़्श-ए-नवा लौट के जाने के लिए था
एक बेनाम-ओ-निशाँ रूह का पैकर हूँ मैं
बस एक वहम सताता है बार बार मुझे
बंद कर ले खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर न देख
बंद कर के खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर न देख
ऐसे कई सवाल हैं जिन का जवाब कुछ नहीं
अब क़ैस है कोई न कोई आबला-पा है