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रुकने का अब नाम न ले है राही चलता जाए है - शमीम अनवर कविता - Darsaal

रुकने का अब नाम न ले है राही चलता जाए है

रुकने का अब नाम न ले है राही चलता जाए है

बूढ़ा बरगद अपने साए में ख़ुद ही सुसताए है

भीनी भीनी महुवा की बू दूर गाँव से आए है

भूली-बिसरी कोई कहानी नस नस आग लगाए है

उलझी साँसें सरगोशी और चौड़ी की मद्धम आवाज़

पास का कमरा रोज़ रात की नींद उड़ा ले जाए है

कम क्या होती लज्जा की ये दूरी अब तो और बढ़ी

दायाँ गाल छुपा कर अब वो और अधिक शरमाए है

जब से साला शहरी बाबू अपने गाँव में आया है

गोरी कई कई बार कुएँ पर पानी भरने जाए है

पूरब पच्छिम उतर दक्खिन अपनी मिट्टी के क़ैदी

यूँ चौराहे की तख़्ती हूँ जो रस्ता दिखलाए है

हाथ से मछली फिस्ले बीता एक ज़माना पर अब भी

अपनी हथेली सूँघे है जब नद्दी किनारे आए है

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In Hindi By Famous Poet Shamim Anwar. is written by Shamim Anwar. Complete Poem in Hindi by Shamim Anwar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.