याद आती है अच्छी सी कोई बात सर-ए-शाम
फिर सुब्ह तलक सोचते रहते हैं वो क्या थी
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अहम आँखें हैं या मंज़र खुले तो
किसी का तीर किसी की कमाँ हो ठीक नहीं
ये कहो ये न कहो ऐसे कहो ऐसे नहीं
कभी भँवर थी जो इक याद अब सुनामी है
ज़ियाँ गर कुछ हुआ तो उतना जितना सूद होता है
नज़र समेटें बटोर कर इंतिज़ार रख दें
कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी काबा तो कभी ख़ानक़ाह
उम्र गुज़र जाती है क़िस्से रह जाते हैं
कोई ऐसे वक़्त में हम से बिछड़ा है
इक्का दुक्का शाज़-ओ-नादिर बाक़ी हैं
शहर में आ ही गए हैं तो गुज़ारा कर लें