कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी काबा तो कभी ख़ानक़ाह
ये तिरी तलब का जुनून था मुझे कब किसी से लगाव था
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अहम आँखें हैं या मंज़र खुले तो
बस एक बार फ़क़त एक बार कम से कम
तू क्या जाने तेरी बाबत क्या क्या सोचा करते हैं
वो एक शख़्स मिरे पास जो रहा भी नहीं
आ तिरे संग ज़रा पेंग बढ़ाई जाए
किसी का तीर किसी की कमाँ हो ठीक नहीं
ये कहो ये न कहो ऐसे कहो ऐसे नहीं
तुम में तो कुछ भी वाहियात नहीं
टटोलो परख लो चलो आज़मा लो
शाकी बद-ज़न आज़ुर्दा हैं मुझ से मेरे भाई यार
शहर में आ ही गए हैं तो गुज़ारा कर लें
ज़ियाँ गर कुछ हुआ तो उतना जितना सूद होता है