बड़ी सर्द रात थी कल मगर बड़ी आँच थी बड़ा ताव था
बड़ी सर्द रात थी कल मगर बड़ी आँच थी बड़ा ताव था
सभी तापते रहे रात भर तिरा ज़िक्र क्या था अलाव था
वो ज़बाँ पे ताले पड़े हुए वो सभी के दीदे फटे हुए
बहा ले गया जो तमाम को मिरी गुफ़्तुगू का बहाओ था
कभी मय-कदा कभी बुत-कदा कभी का'बा तो कभी ख़ानक़ाह
ये तिरी तलब का जुनून था मुझे कब किसी से लगाव था
चलो माना सब को तिरी तलब चलो माना सारे हैं जाँ ब-लब
प तिरे मरज़ में यूँ मुब्तला कहीं हम सा कोई बताओ था
ये मुबाहिसे ये मुनाज़रे ये फ़साद-ए-ख़ल्क़ ये इंतिशार
जिसे दीन कहते हैं दीन-दार मिरी रूह पर वही घाव था
मुझे क्या जुनून था क्या पता जो जहाँ को रौंदता यूँ फिरा
कहीं टिक के मैं ने जो दम लिया तिरी ज़ात ही वो पड़ाव था
(728) Peoples Rate This