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ज़ात का गहरा अंधेरा है बिखर जा मुझ में - शकील मज़हरी कविता - Darsaal

ज़ात का गहरा अंधेरा है बिखर जा मुझ में

ज़ात का गहरा अंधेरा है बिखर जा मुझ में

डूबती शाम के सूरज तू उतर जा मुझ में

इब्न-ए-आदम हूँ मैं शहज़ादा-ए-तामीर-ए-हयात

तू जो बिगड़ा हो तो ऐ वक़्त सँवर जा मुझ में

फिर से इक शक्ल नई तुझ को अता कर दूँगा

ऐ मिरी ज़ीस्त किसी रोज़ तू मर जा मुझ में

आए और बीत गए कितने ही सावन लेकिन

कोई जज़्बा कोई बादल नहीं गरजा मुझ में

सख़्त-जानी पे मिरी करती है दुनिया हैरत

ज़िंदगी अपना कोई ज़हर ही भर जा मुझ में

तेरी पैराहन-ए-अल्फ़ाज़ से तज़ईन करूँ

ऐ मिरे कर्ब ज़रा देर ठहर जा मुझ में

रूह का दश्त हूँ सहरा-ए-तख़य्युल हूँ मैं

हर तरफ़ एक उदासी है गुज़र जा मुझ में

ये सदा-ए-पस-ए-अन्फ़ास का पर्दा कब तक

तू कहीं है तो तड़प और उभर जा मुझ में

रंग हूँ गीत हूँ नग़्मा हूँ मैं ख़ुशबू हूँ 'शकील'

ज़ीस्त ही ज़ीस्त है बिखरी हुई हर जा मुझ में

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In Hindi By Famous Poet Shakeel Mazhari. is written by Shakeel Mazhari. Complete Poem in Hindi by Shakeel Mazhari. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.