जाँ के ज़ियाँ को ग़म की तलाफ़ी समझ लिया
जाँ के ज़ियाँ को ग़म की तलाफ़ी समझ लिया
कम-हौसलों ने मौत को शाफ़ी समझ लिया
जो गुफ़्तुगू में सब से ज़रूरी था वो सुख़न
उन की समाअतों ने इज़ाफ़ी समझ लिया
इक शर्त-ए-जुस्तुजू भी थी मंज़िल के वास्ते
हम ने बस आरज़ू को ही काफ़ी समझ लिया
ख़ुद्दारी-ए-जुनूँ में इन आँखों ने तेरे ब'अद
अश्कों को भी वफ़ा के मुनाफ़ी समझ लिया
'जाज़िब' न जाने कौन सी दुनिया का शख़्स था
जिस ने सज़ाओं को भी मुआफ़ी समझ लिया
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