ज़िंदगी ऐसे भी हालात बना देती है
लोग साँसों का कफ़न ओढ़ के मर जाते हैं
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ग़म के पीछे मारे मारे फिरना क्या
अश्क पीने के लिए ख़ाक उड़ाने के लिए
इक बीमार वसिय्यत करने वाला है
शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा
इसी दुनिया के इसी दौर के हैं
दिलों के माबैन शक की दीवार हो रही है
दुखों में उस के इज़ाफ़ा भी मैं ही करता हूँ
कहानी में छोटा सा किरदार है
सब से पहले दिल के ख़ाली-पन को भरना
हो गई है मिरी उजड़ी हुई दुनिया आबाद
रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
ये तिरी ख़ल्क़-नवाज़ी का तक़ाज़ा भी नहीं