रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे
Gulzar
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दिलों के माबैन शक की दीवार हो रही है
सारे भूले बिसरों की याद आती है
किन ज़मीनों पे उतारोगे इमदाद का क़हर
अश्क पीने के लिए ख़ाक उड़ाने के लिए
अब बंद जो इस अब्र-ए-गुहर-बार को लग जाए
मौत को हम ने कभी कुछ नहीं समझा मगर आज
मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग
वफ़ादारों पे आफ़त आ रही है
चाहत की लौ को मद्धम कर देता है
झूट में शक की कम गुंजाइश हो सकती है