मौत को हम ने कभी कुछ नहीं समझा मगर आज
अपने बच्चों की तरफ़ देख के डर जाते हैं
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झूट में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है
किन ज़मीनों पे उतारोगे इमदाद का क़हर
लोग कहते हैं कि इस खेल में सर जाते हैं
मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग
तुम शुजाअ'त के कहाँ क़िस्से सुनाने लग गए
ग़म के पीछे मारे मारे फिरना क्या
सारे भूले बिसरों की याद आती है
कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है
ये तिरी ख़ल्क़-नवाज़ी का तक़ाज़ा भी नहीं
दुखों में उस के इज़ाफ़ा भी मैं ही करता हूँ