मसअला ख़त्म हुआ चाहता है
दिल बस अब ज़ख़्म नया चाहता है
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थोड़ा सा माहौल बनाना होता है
अभी रौशन हुआ जाता है रस्ता
मौत को हम ने कभी कुछ नहीं समझा मगर आज
ग़म के पीछे मारे मारे फिरना क्या
कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है
अल्फ़ाज़ नर्म हो गए लहजे बदल गए
झूट में शक की कम गुंजाइश हो सकती है
कुछ लोग हैं जो झेल रहे हैं मुसीबतें
अगर हमारे ही दिल में ठिकाना चाहिए था
इक बीमार वसीयत करने वाला है
रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे