मैं ने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग
अपने बच्चे के खिलौने को बचाने के लिए
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मौत को हम ने कभी कुछ नहीं समझा मगर आज
अब बंद जो इस अब्र-ए-गुहर-बार को लग जाए
झूट सच्चाई का हिस्सा हो गया
ज़िंदगी ऐसे भी हालात बना देती है
दुखों में उस के इज़ाफ़ा भी मैं ही करता हूँ
कोई स्कूल की घंटी बजा दे
लोग कहते हैं कि इस खेल में सर जाते हैं
अपने ख़ून से इतनी तो उम्मीदें हैं
रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
तुम शुजाअ'त के कहाँ क़िस्से सुनाने लग गए