हर कोने से तेरी ख़ुशबू आएगी
हर संदूक़ में तेरे कपड़े निकलेंगे
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Habib Jalib
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ये तिरी ख़ल्क़-नवाज़ी का तक़ाज़ा भी नहीं
अगर हमारे ही दिल में ठिकाना चाहिए था
तुम्हारे बा'द बड़ा फ़र्क़ आ गया हम में
अपने ख़ून से इतनी तो उम्मीदें हैं
कुछ लोग हैं जो झेल रहे हैं मुसीबतें
वफ़ादारों पे आफ़त आ रही है
मसअला ख़त्म हुआ चाहता है
कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है
तुम शुजाअ'त के कहाँ क़िस्से सुनाने लग गए
किसी का साथ मियाँ जी सदा नहीं रहा है
सफ़र से लौट जाना चाहता है