अभी रौशन हुआ जाता है रस्ता
वो देखो एक औरत आ रही है
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रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
ये तिरी ख़ल्क़-नवाज़ी का तक़ाज़ा भी नहीं
मौत को हम ने कभी कुछ नहीं समझा मगर आज
कोई स्कूल की घंटी बजा दे
किसी का साथ मियाँ जी सदा नहीं रहा है
खाने को तो ज़हर भी खाया जा सकता है
इसी दुनिया के इसी दौर के हैं
तुम शुजाअ'त के कहाँ क़िस्से सुनाने लग गए
उल्टे सीधे सपने पाले बैठे हैं
अगर हमारे ही दिल में ठिकाना चाहिए था
किन ज़मीनों पे उतारोगे इमदाद का क़हर
लोग कहते हैं कि इस खेल में सर जाते हैं