जब उठे तूफ़ाँ तो कोई चीज़ ज़द में हो 'शकील'
हर बुलंदी के लिए इक आबगीना चाहिए
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इक आस का दिया तो दिल में जलाते जाओ
शहर का शहर जानता है मुझे
जब क़ाफ़िला यादों का गुज़रा तो फ़ज़ा महकी
रूह से कब ये जिस्म जुदा है
ग़म का सूरज कभी ढलता ही नहीं
ख़्वाबों की रहगुज़र से ख़यालों की राह से
आज उस बज़्म में यूँ दाद-ए-वफ़ा दी जाए
जान की बारी है अब दिल का ज़ियाँ ऐसा न था
हम पर जितने वार हुए भरपूर हुए
ये दिल हर इक नई कोशिश पे यूँ धड़कता है
चाक कर कर के गरेबाँ रोज़ सीना चाहिए