ये सिलसिला ग़मों का न जाने कहाँ से है
ये सिलसिला ग़मों का न जाने कहाँ से है
अहल-ए-ज़मीं को शिकवा मगर आसमाँ से है
यादों की रहगुज़ार से ख़्वाबों के शहर तक
इक सिलसिला ज़रूर है लेकिन कहाँ से है
मेरी किताब-ए-ज़ीस्त को ऐसे न फेंकिए
रौशन किसी का नाम इसी दास्ताँ से है
मंज़िल न पाई मैं ने मगर ये तो खुल गया
रिश्ता मिरे सफ़र का किसी कारवाँ से है
मौसम की हेर-फेर ने साबित ये कर दिया
कुछ मेरे जिस्म का भी तअल्लुक़ मकाँ से है
कहने को लोग क्या नहीं कहते 'शकील' को
सुनने का इश्तियाक़ तुम्हारी ज़बाँ से है
(553) Peoples Rate This