रूह से कब ये जिस्म जुदा है
इन बातों में क्या रक्खा है
रफ़्ता रफ़्ता वो भी मुझ को
भूल रहा है भूल चुका है
रुत पैराहन बदल रही है
पत्ता पत्ता टूट रहा है
इन आँखों का हर अफ़्साना
मेरे ही ख़्वाबों की सदा है
हर चेहरा जाना-पहचाना
शहर ही अपना छोटा सा है
Anwar Masood
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जान की बारी है अब दिल का ज़ियाँ ऐसा न था
ये दिल हर इक नई कोशिश पे यूँ धड़कता है
हम पर जितने वार हुए भरपूर हुए
आज उस बज़्म में यूँ दाद-ए-वफ़ा दी जाए
हम कब उस राह से गुज़रते हैं
जब क़ाफ़िला यादों का गुज़रा तो फ़ज़ा महकी
ख़्वाबों की रहगुज़र से ख़यालों की राह से
चाक कर कर के गरेबाँ रोज़ सीना चाहिए
शहर का शहर जानता है मुझे
ग़म का सूरज कभी ढलता ही नहीं
इक आस का दिया तो दिल में जलाते जाओ
जब उठे तूफ़ाँ तो कोई चीज़ ज़द में हो 'शकील'