कल रात ज़िंदगी से मुलाक़ात हो गई
लब थरथरा रहे थे मगर बात हो गई
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क्या हसीं ख़्वाब मोहब्बत ने दिखाया था हमें
ज़िंदगी उन की चाह में गुज़री
अभी जज़्बा-ए-शौक़ कामिल नहीं है
तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
तुम फिर उसी अदा से अंगड़ाई ले के हँस दो
उन से उम्मीद-ए-रू-नुमाई है
बेकार गई आड़ तिरे पर्दा-ए-दर की
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
काफ़ी है मिरे दिल की तसल्ली को यही बात
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
खुल गया उन की आरज़ू में ये राज़
किस से जा कर माँगिये दर्द-ए-मोहब्बत की दवा