हर चीज़ नहीं है मरकज़ पर इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
नफ़रत से न देखो दुश्मन को शायद वो मोहब्बत कर बैठे
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ग़म की दुनिया रहे आबाद 'शकील'
ला रहा है मय कोई शीशे में भर के सामने
तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
तिरी महफ़िल से उठ कर इश्क़ के मारों पे क्या गुज़री
ज़मीं पर फ़स्ल-ए-गुल आई फ़लक पर माहताब आया
सुना है ज़िंदगी वीरानियों ने लूट ली मिल कर
हंगामा-ए-ग़म से तंग आ कर इज़हार-ए-मसर्रत कर बैठे
मोहब्बत ही में मिलते हैं शिकायत के मज़े पैहम
वो अगर बुरा न मानें तो जहान-ए-रंग-ओ-बू में
लुत्फ़-ए-निगाह-ए-नाज़ की तोहमत उठाए कौन
तक़दीर की गर्दिश क्या कम थी इस पर ये क़यामत कर बैठे
वो हम से दूर होते जा रहे हैं