हाए वो ज़िंदगी की इक साअत
जो तिरी बारगाह में गुज़री
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न पैमाने खनकते हैं न दौर-ए-जाम चलता है
चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल
शिकवा-ए-इज़्तिराब कौन करे
ज़िंदगी का दर्द ले कर इंक़लाब आया तो क्या
बे-तअल्लुक़ तिरे आगे से गुज़र जाता है
आँख उन को देखती है नज़ारा किए बग़ैर
वो हम से दूर होते जा रहे हैं
तिरी अंजुमन में ज़ालिम अजब एहतिमाम देखा
जीने वाले क़ज़ा से डरते हैं
फिर वही जोहद-ए-मुसलसल फिर वही फ़िक्र-ए-मआश
मुझ को साक़ी ने जो रुख़्सत किया मय-ख़ाने से
कैसे कह दूँ की मुलाक़ात नहीं होती है