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सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं - शकील बदायुनी कविता - Darsaal

सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं

सरगुज़िश्त-ए-दिल को रूदाद-ए-जहाँ समझा था मैं

मुख़्तसर सी बात को इक दास्ताँ समझा था मैं

बन गई मेरे लिए इक इज़्तिराब-ए-मुस्तक़िल

जिस मोहब्बत को सुकून-ए-क़ल्ब-ओ-जाँ समझा था मैं

वो भी मेरी गर्दिश-ए-तक़दीर का इक दौर था

जिस को अब तक इंक़िलाब-ए-आसमाँ समझा था मैं

वो तो ये कहिए मोहब्बत ने ही आँखें खोल दीं

ज़िंदगी को वर्ना इक राज़-ए-निहाँ समझा था मैं

रश्क रह रह कर न क्यूँ आए नसीब-ए-ग़ैर पर

वो उसी महफ़िल में शामिल थे जहाँ समझा था मैं

था हरम की सरज़मीं पर लुत्फ़-अंदोज़-ए-सुजूद

या'नी का'बे को तुम्हारा आस्ताँ समझा था मैं

वादी-ए-ग़ुर्बत में यूँ गुम-कर्दा मंज़िल था 'शकील'

रहज़न-ए-मंज़िल को ख़िज़्र-ए-कारवाँ समझा था मैं

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In Hindi By Famous Poet Shakeel Badayuni. is written by Shakeel Badayuni. Complete Poem in Hindi by Shakeel Badayuni. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.