नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता
नज़र-नवाज़ नज़ारों में जी नहीं लगता
वो क्या गए कि बहारों में जी नहीं लगता
शब-ए-फ़िराक़ को ऐ चाँद आ के चमका दे
नज़र उदास है तारों में जी नहीं लगता
ग़म-ए-हयात के मारे तो हम भी हैं लेकिन
ग़म-ए-हयात के मारों में जी नहीं लगता
न पूछ मुझ से तिरे ग़म में क्या गुज़रती है
यही कहूँगा हज़ारों में जी नहीं लगता
कुछ इस क़दर है ग़म-ए-ज़िंदगी से दिल मायूस
ख़िज़ाँ गई तो बहारों में जी नहीं लगता
फ़साना-ए-शब-ए-ग़म ख़त्म होने वाला है
'शकील' चाँद सितारों में जी नहीं लगता
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