ख़ाना-ए-उम्मीद बे-नूर-ओ-ज़िया होने को है
ख़ाना-ए-उम्मीद बे-नूर-ओ-ज़िया होने को है
चश्म-ए-तर से आख़िरी आँसू जुदा होने को है
ये भी ऐ दिल इक फ़रेब-ए-वादा-ए-फ़र्दा न हो
रोज़ सुनता हूँ कोई महशर बपा होने को है
दूर हूँ लेकिन बता सकता हूँ उन की बज़्म में
क्या हुआ क्या हो रहा है और क्या होने को है
खुल रही है आँख इक काफ़िर हसीं की सुब्ह-दम
मय-कशो मुज़्दा दर-ए-मय-ख़ाना वा होने को है
तर्क-ए-उल्फ़त को ज़माना हो गया लेकिन 'शकील'
आज फिर मेरा और उन का सामना होने को है
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