जज़्बात की रौ में बह गया हूँ
कहना जो न था वो कह गया हूँ
हर लम्हा-ए-सर-ख़ुशी में अक्सर
दो अश्क बहा के रह गया हूँ
था जिन पे गुमाँ तिरे सितम का
कुछ ऐसे करम भी सह गया हूँ
शायद वो इसे जुनूँ समझ लें
इक बात पते की कह गया हूँ
अब क्या ग़म-ए-साहिल-ओ-तलातुम
इक मौज के साथ बह गया हूँ