आदमी न इतना भी दूर हो ज़माने से
आदमी न इतना भी दूर हो ज़माने से
सुब्ह को जुदा समझे शाम के फ़साने से
देख तिफ़्लक-ए-नादाँ क़द्र कर बुज़ुर्गों की
गुत्थियाँ न सुलझेंगी मज़हका उड़ाने से
ज़ख़्म-ए-सर के दीवाने ज़ख़्म-ए-दिल का क़ाइल हो
ज़िंदगी सँवरती है दिल पे चोट खाने से
मुतरिब-ए-जुनूँ-सामाँ तू न छेड़ ये नग़्मा
धुन ख़राब होती है तेरे गुनगुनाने से
गर्मी-ए-सुख़न से कुछ काम बन नहीं सकता
मिल ही जाएगी मंज़िल दो-क़दम बढ़ाने से
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