ज़मीन ले के वो आए तो घर बनाया जाए
खड़े हैं देर से हम लोग ईंट गारे लिए
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अपनी हस्ती को मिटा दूँ तिरे जैसा हो जाऊँ
एक सुराख़ सा कश्ती में हुआ चाहता है
ज़िंदा रहना है तो साँसों का ज़ियाँ और सही
हादसे शहर का दस्तूर बने जाते हैं
मुझ को बिखराया गया और समेटा भी गया
आख़िरी खिलौने का मातम
अब इस से मिलने की उम्मीद क्या गुमाँ भी नहीं
फिर यूँ हुआ थकन का नशा और बढ़ गया
धुआँ धुआँ है फ़ज़ा रौशनी बहुत कम है
हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
चढ़ा हुआ है जो दरिया उतरने वाला है
जब तलक उस ने हम से बातें कीं