मुझ को बिखराया गया और समेटा भी गया
जाने अब क्या मिरी मिट्टी से ख़ुदा चाहता है
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चाँद में ढलने सितारों में निकलने के लिए
धूप से बर-सर-ए-पैकार किया है मैं ने
हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है
डाका
भूक में इश्क़ की तहज़ीब भी मर जाती है
संग थे पिघले तो पानी हो गए
अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी
बात से बात की गहराई चली जाती है
इस बार उस की आँखों में इतने सवाल थे
ख़ुद को इतना भी न बचाया कर
जब तलक उस ने हम से बातें कीं