मैं सो रहा हूँ तिरे ख़्वाब देखने के लिए
ये आरज़ू है कि आँखों में रात रह जाए
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अपनी हस्ती को मिटा दूँ तिरे जैसा हो जाऊँ
इस बार उस की आँखों में इतने सवाल थे
हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
एक सुराख़ सा कश्ती में हुआ चाहता है
दर्द में शिद्दत-ए-एहसास नहीं थी पहले
अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी
तुझ को सोचों तो तिरे जिस्म की ख़ुशबू आए
ख़ुद को इतना भी न बचाया कर
ज़मीन ले के वो आए तो घर बनाया जाए
संग थे पिघले तो पानी हो गए
नदी का आब दिया है तो कुछ बहाव भी दे
हुआ न ख़त्म अज़ाबों का सिलसिला अब तक