जब तलक उस ने हम से बातें कीं
जैसे फूलों के दरमियान थे हम
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धूप से बर-सर-ए-पैकार किया है मैं ने
अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी
ज़मीन ले के वो आए तो घर बनाया जाए
कच्चे रंगों का मौसम
मैं जानता हूँ ख़ुशामद-पसंद कितना है
दर्द में शिद्दत-ए-एहसास नहीं थी पहले
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
जाने कैसा रिश्ता है रहगुज़र का क़दमों से
मुझ को बिखराया गया और समेटा भी गया
ज़रा से ग़म के लिए जान से गुज़र जाना
बस इक पुकार पे दरवाज़ा खोल देते हैं
फिर यूँ हुआ थकन का नशा और बढ़ गया