जाने कैसा रिश्ता है रहगुज़र का क़दमों से
थक के बैठ जाऊँ तो रास्ता बुलाता है
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आज आँखों में कोई रात गए आएगा
दर्द में शिद्दत-ए-एहसास नहीं थी पहले
बात से बात की गहराई चली जाती है
संग थे पिघले तो पानी हो गए
अब इस से मिलने की उम्मीद क्या गुमाँ भी नहीं
ज़मीन ले के वो आए तो घर बनाया जाए
मेरे होंटों पे ख़ामुशी है बहुत
बस इक पुकार पे दरवाज़ा खोल देते हैं
आख़िरी खिलौने का मातम
धूप से बर-सर-ए-पैकार किया है मैं ने
जब तलक उस ने हम से बातें कीं