आज आँखों में कोई रात गए आएगा
आज की रात ये दरवाज़ा खुला रहने दे
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बात से बात की गहराई चली जाती है
हादसे शहर का दस्तूर बने जाते हैं
भूक में इश्क़ की तहज़ीब भी मर जाती है
अपनी हस्ती को मिटा दूँ तिरे जैसा हो जाऊँ
राह में घर के इशारे भी नहीं निकलेंगे
हुआ न ख़त्म अज़ाबों का सिलसिला अब तक
हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
मेरे होंटों पे ख़ामुशी है बहुत
चढ़ा हुआ है जो दरिया उतरने वाला है
ज़िंदा रहना है तो साँसों का ज़ियाँ और सही
फूल खिला दे शाख़ों पर पेड़ों को फल दे मालिक