ख़्वाब-ए-गुल-रंग के अंजाम पे रोना आया
ख़्वाब-ए-गुल-रंग के अंजाम पे रोना आया
आमद-ए-सुब्ह-ए-शब-ए-अंदाम पे रोना आया
दिल का मफ़्हूम इशारों से उजागर न हुआ
बे-कसी-ए-गिला-ए-ख़ाम पे रोना आया
कभी उल्फ़त सी झलकती है कभी नफ़रत सी
ऐ तअ'ल्लुक़ तिरे इबहाम पे रोना आया
मिरी ख़ुशियाँ कभी जिस नाम से वाबस्ता थीं
जाने क्यूँ आज उसी नाम पे रोना आया
ले के उभरेगी सहर फिर वही पज़मुर्दा किरन
क्या कहूँ तीरगी-ए-शाम पे रोना आया
बे-सबब अपनी निगाहों से गिरा जाता हूँ
इस फ़ुसूँ-कारी-ए-इल्ज़ाम पे रोना आया
इतने अर्ज़ां तो नहीं थे मिरे अश्कों के गुहर
आज क्यूँ तल्ख़ी-ए-आलाम पे रोना आया
लायक़-ए-हुस्न-ए-नज़र थे न कभी उन के ख़ुतूत
आज महरूमी-ए-पैग़ाम पे रोना आया
अब भी मंज़िल मिरे क़दमों की तमन्नाई है
क्या कहूँ हसरत-ए-यक-गाम पे रोना आया
रोने वाला तो करेगा न किसी का शिकवा
लाख कहिए ग़म-ए-अय्याम पे रोना आया
उन के शुबहात में कुछ और इज़ाफ़ा था 'शकेब'
अश्क-ए-सादा के इस इनआ'म पे रोना आया
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