ग़म-ए-उल्फ़त मिरे चेहरे से अयाँ क्यूँ न हुआ
ग़म-ए-उल्फ़त मिरे चेहरे से अयाँ क्यूँ न हुआ
आग जब दिल में सुलगती थी धुआँ क्यूँ न हुआ
सैल-ए-ग़म रुकता नहीं ज़ब्त की दीवारों से
जोश-ए-गिर्या था तो मैं गिर्या-कुनाँ क्यूँ न हुआ
कहते हैं हुस्न ख़द-ओ-ख़ाल का पाबंद नहीं
हर हसीं शय पे मुझे तेरा गुमाँ क्यूँ न हुआ
दश्त भी इस के मकीं शहर भी इस में आबाद
तू जहाँ आन बसे दिल वो मकाँ क्यूँ न हुआ
ये समझते हुए मक़्सूद-ए-नज़र है तू ही
मैं तिरे हुस्न की जानिब निगराँ क्यूँ न हुआ
इस से पहले कि तिरे लम्स की ख़ुशबू खो जाए
तुझ को पा लेने का अरमान जवाँ क्यूँ न हुआ
तपते सहरा तो मिरी मंज़िल-ए-मक़्सूद न थे
मैं कहीं हम-सफ़र-ए-अबर-ए-रवाँ क्यूँ न हुआ
अजनबी पर तो यहाँ लुत्फ़ सिवा होता है
मैं भी इस शहर में बेनाम-ओ-निशाँ क्यूँ न हुआ
ना-रसाई थी मिरे शौक़ का हासिल तो 'शकेब'
हाइल-ए-राह कोई संग-ए-गिराँ क्यूँ न हुआ
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