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अजनबी शहर में उल्फ़त की नज़र को तरसे - शाइस्ता मुफ़्ती कविता - Darsaal

अजनबी शहर में उल्फ़त की नज़र को तरसे

अजनबी शहर में उल्फ़त की नज़र को तरसे

शाम ढल जाए तो रह-गीर भी घर को तरसे

ख़ाली झोली लिए फिरता है जो ऐवानों में

मेरा शफ़्फ़ाफ़ हुनर अर्ज़-ए-हुनर को तरसे

जिस जगह हम ने जलाए थे वफ़ाओं के दिए

फिर उसी गाह पे दिलदार नज़र को तरसे

मेरी बे-ख़्वाब निगाहें हैं समुंदर शब है

वक़्त थम थम के जो गुज़रे है सहर को तरसे

जाने हम किस से मुख़ातब हैं भरी महफ़िल में

बात दिल में जो न उतरे है असर को तरसे

कितने मौसम हैं कि चुप-चाप गुज़र जाते हैं

तेरे आने का दिलासा है ख़बर को तरसे

शबनमी राख बिछी है मिरे अरमानों की

नक़्श-ए-पा तेरे किसी ख़ाक-बसर को तरसे

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In Hindi By Famous Poet Shaista Mufti. is written by Shaista Mufti. Complete Poem in Hindi by Shaista Mufti. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.