इस वास्ते निकलूँ हूँ तिरे कूचे से बच बच
इस वास्ते निकलूँ हूँ तिरे कूचे से बच बच
हर एक मचाता है मुझे देख के कच-कच
नैरंगी-ए-क़ुदरत का वही दीद करे है
पानी की तरह हो जो हर इक रंग में रच-रच
सर पर से तो मंदील को अब दूर कर ऐ शैख़
गर्दन तिरी इस बोझ से अब करती है लच-लच
नादान है ऐसा कि जो दुश्मन मिरे हक़ में
झूठी उसे कहते हैं तो वो जाने है सच सच
मक्तब में जो की सैर तो देखा ये तमाशा
मुल्ला के भी शागिर्द हैं मुर्गे के से कच-कच
ज़र होवे तो माशूक़ भी हाथ आवे है 'हातिम'
मुफ़्लिस अबस इस फ़िक्र में जी देवे है नच-नच
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