साक़ी मय-ए-गुल-रंग मिरे लब से मिला देख
साक़ी मय-ए-गुल-रंग मिरे लब से मिला देख
जिस वक़्त बहकने मैं लगूँ तब तू मज़ा देख
गर देखना है बुलबुल-ए-नालाँ का तमाशा
तो बाद-ए-सबा बाग़ में तू गुल को हँसा देख
बिगड़ी है शब-ए-वस्ल तो वो मुझ से कहे है
अब की तो बदन को तू मिरे हाथ लगा देख
पीछा तिरा छोड़ें न कभी बोसा लिए बिन
दो रोज़ हम ऐसों को ज़रा मुँह तो लगा देख
क्या फ़ाएदा गर उस के दिल-ओ-जाँ का ज़रर हो
'मसरूर' को यूँ ख़ूँ न रुला रंग-ए-हिना देख
(447) Peoples Rate This