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तेरी हर इक बात है नश्तर न छेड़ - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

तेरी हर इक बात है नश्तर न छेड़

तेरी हर इक बात है नश्तर न छेड़

पक्का फोड़ा हूँ मैं ऐ दिलबर न छेड़

मैं अगर रोया तो क्या हाथ आएगा

अश्क के क़तरे नहीं गौहर न छेड़

मुँह से कह बैठेंगे जो हो जाएगा

हम सड़े सौदाइयों से डर न छेड़

तेरे क़दमों से लगा हूँ रहम कर

ठोकरों से ओ बुत-ए-ख़ुद-सर न छेड़

शीशा-ए-दिल चूर हो जाएगा यार

है कलाम-ए-सख़्त भी पत्थर न छेड़

ख़ौफ़ कर हम दिल-जलों की आह से

छेड़ना हम को नहीं बेहतर न छेड़

भड़ का छत्ता है दिल-ए-सूराख़-दार

उस की आहें तैश हैं दिलबर न छेड़

दस्त-ए-नाज़ुक को न पहुँचे कोई रंज

झाड़ काँटों का हूँ मैं लाग़र न छेड़

बे-मज़ा बातों से दिल उक्ता गया

छेड़े से अब दम है होंटों पर न छेड़

बू-ए-ख़ूँ आती है इस तक़रीर से

ज़िक्र ग़ैरों का मिरे मुँह पर न छेड़

वे कि रोएगा हँसी अच्छी नहीं

छेड़ में कुछ हो न जाए शर न छेड़

तेरी आहें यार को ना-साज़ हैं

साज़ अपना ऐ दिल-ए-मुज़्तर न छेड़

हश्र बरपा कर के लेटा हूँ अभी

सोने दे ओ फ़ित्ना-ए-महशर न छेड़

कह वो मश्शाता से अफ़ई है वो ज़ुल्फ़

उस के काटे का नहीं मंतर न छेड़

रोएगा दाढी को ड़ाढें मार कर

मोहतसिब रिंदों को मुँह चढ़ कर न छेड़

ख़ुश न होगा कोई सोता चौंक कर

'बहर' तू ग़ाफ़िल को समझा कर न छेड़

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