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शोर है उस सब्ज़ा-ए-रुख़्सार का - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

शोर है उस सब्ज़ा-ए-रुख़्सार का

शोर है उस सब्ज़ा-ए-रुख़्सार का

आज तूती बोलता है यार का

किस अदा से हाथ रक्खा क़ब्ज़े पर

पड़ गया पुतली में दम तलवार का

अश्क-ए-बे-तासीर से हूँ आब आब

उक़्दा हूँ मैं आँसुओं के तार का

बुझ गया मेरा चराग़-ए-ज़िंदगी

देख कर वो क़ुमक़ुमा रुख़्सार का

किस मरज़ की है दवा उन्नाब-ए-लब

ख़त्त-ए-रुख़ नुस्ख़ा है किस बीमार का

अब की ऐसी हार है फ़स्ल-ए-बहार

गुल है बुतख़ाला ज़बान-ए-ख़ार का

अबरु-ए-ग़िल्माँ है वो मेहराब-ए-दर

ज़ुल्फ़-ए-हूरा साया है दीवार का

लेने वाले ले गए होश-ओ-हवास

बिक गया सौदा मिरे बाज़ार का

जब मैं निकला ख़ल्क़ ने घेरा मुझे

मेरा सौदा क़र्ज़ है बाज़ार का

जू-ए-जन्नत है चेहरे सय्याद की

मेरी गर्दन पर है हक़ गुलज़ार का

आब-कारी की हो ख़िदमत 'बहर' को

ना-ख़ुदा है कश्ती-ए-मय-ख़्वार का

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