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साक़ी तिरे बग़ैर है महफ़िल से दिल उचाट - इमदाद अली बहर कविता - Darsaal

साक़ी तिरे बग़ैर है महफ़िल से दिल उचाट

साक़ी तिरे बग़ैर है महफ़िल से दिल उचाट

सो जैसे जी उदास है सो दिल से दिल उचाट

सू-ए-अदम फिरे चले जाते हैं क़ाफ़िले

सब हम-सफ़र हैं ज़ीस्त है मंज़िल से दिल उचाट

जिस रोज़ से कि शौक़-ए-असीरी हुआ मुझे

सय्याद है शिकार-ए-अनादिल से दिल उचाट

ठुकराए भी न आ के लहद फ़ातिहा कुजा

मर कर हुआ हूँ उस बुत-ए-क़ातिल से दिल उचाट

जुज़ मर्ग कुछ नहीं है तप-ए-हिज्र का इलाज

हम नक़्श चाट कर हुए आमिल से दिल उचाट

काँटों पे मिस्ल-ए-क़ैस कहाँ तक रवाँ-दवाँ

लैला-ए-जाँ है जिस्म की महमिल से दिल उचाट

दोज़ख़ मुझे बहिश्त के बदले क़ुबूल है

ऐसा हूँ एक हूर-शमाइल से दिल उचाट

झंकार से मैं चार-क़दम आगे जाऊँगा

ज़िंदान में हुआ जो सलासिल से दिल उचाट

मजनूँ की चाल लैला अगर दो-क़दम चले

ताबूत दिल-पसंद हो महमिल से दिल उचाट

क़ातिल हमारे दिल को तड़पता न छोड़ जा

इक दम के वास्ते न हो बिस्मिल से दिल उचाट

ऐ 'बहर' यार साथ नहीं जाइए कहाँ

गुलशन से जी उदास है महफ़िल से दिल उचाट

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